"रब ने बना दी जोडी"

18 May 2020 18:38:29

प्रेम इस शब्द की व्याख्या हर किसी के लिये अलग-अलग होती है, इस दुनियां में हर इंसान कभी न कभी प्रेम जरूर करता है, हर कोई प्रेम को अपने नजरिये से देखता है, किसी के लिये प्रेम समर्पण है तो कुछ लोग हासिल करने को ही प्रेम मानते है... पर क्या आप ऐसे किसी को जानते है जिसने अपने प्रेम को ही अपना जीवन मान लिया हो,

तो चलिये जानते है ऐसे एक युगल "बंशी" और "मंजिरी" की कहानी......

ये कोई प्रेम कहानी नही बल्कि एक घोर संघर्ष है जिसमें इन दोनों ने ही एक दूसरे को पाने के लिये अनेक कठिनाइयों का सामना किया, पर अपने प्रेम को नही छोडा,


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सबसे पहले जानेंगे मंजिरी की अत्यंत कठिनाई और संघर्ष से भरी कहानी -

मंजिरी भोयर महाराष्ट्र के वर्धा जिले के हिंगणघाट नामक स्थान की मूल निवासी है , जन्म के समय पूर्णतः स्वस्थ मंजिरी को 6 महीने की अवस्था में गांव के ही अस्पताल में टीका लगाने ले जाया गया, उस गलत इंजेक्शन ने बेचारी मंजिरी का जीवन अंधकारमय कर दिया, उन्हे मात्र 6 महीने की उम्र में "पैरालिसिस" जैसी भयंकर समस्या ने घेर लिया, उस गलत इंजेक्शन का इतना बुरा असर हुआ कि वो अपनी आवाज खो बैठी, अब केवल आंखो से निकलने वाले आंसू ही बता पाते थे कि वो बच्ची किसी तकलीफ में है, माता-पिता परेशान थे पर किसी बडे शहर में ले जाकर इलाज उनके लिये संभव नही था, पर वे लगातार प्रयत्न करने लगे जिससे उनकी बेटी का इलाज होकर वो चल-फिर सके, उनके आस-पास जितना और जो संभव था सब किया हर प्रकार की दवाईयां दी पर मंजिरी के स्वास्थ्य में कोई फरक नही पडा, समय बीतता गया और दवाईयां, काढे, तेल-मालिश ये सिलसिला चलता रहा, वक्त अपना काम कर रहा था, मंजिरी की उम्र बढ रही थी,कुछ सालों बाद लगातार चलने वाले प्रयत्न कुछ अंश तक सफल हुए और मंजिरी की आवाज उसे वापस मिल गयी, अब वो अपनी मां को पुकार सकती थी, सब खुश थे कि उन्होने एक मुकाम जीत लिया, पंरतु शरीर अब भी निष्क्रिय था वो पूरी तरह दूसरों पर निर्भर थी, हवा का झोंका भी आता तो वे गिर जाती थी,उन्हे बिस्तर से उठने, दिनचर्या करने के लिये सहारे की जरूरत होती थी। किन्ही कारणों से मंजिरी अपनी नानी के घर पर रहती थी, पर बूढी नानी उनका अच्छे से ख्याल रखती थी।

एक छोटा सा गांव, संयुक्त परिवार और उस पर उनकी ये दयनीय अवस्था , माता-पिता समझ नही पा रहे थे कि वो क्या करे, पैसा लगातार खर्च हो रहा था, पर मंजिरी के स्वास्थ में कोई फरक नही पड रहा था, स्कूल जाने की उम्र थी पर ये उसके लिये एक सपना ही था, बिस्तर पर पडे-पडे मंजिरी सभी बच्चों को स्कूल जाते देखती, उसका भी मन करता कि वो भी पढ-लिख पाए, पर गांव मे ना सुविधाएं थी और ना ही घर पर पढाने का साधन, इसी तरह दिन बीतनज लगे, पर पढने की ललक उसे शांत नही बैठने दे रही थी, अब वो 11 वर्ष की हो चुकी थी और सहारे के साथ उठकर बैठने लगी थी, लगातार चलने वाले इलाज से उन्हे चिढ होने लगी थी और अब वो कुछ अलग करना चाहती थी। एक दिन अपने 3 साल बडे मामा से उन्होने किताब मांगी और कहा कि वो पढना चाहती है, वक्त काटने के लिये मांग रही होगी ये सोच कर मामा ने भी अपनी किताबें मंजिरी को पढने देना शुरू कर दिया, पर वो अभी मंजिरी की जि़द से वाकिफ नही थे, अब मंजिरी उस रास्ते निकल पडी थी जिससे हर कोई अनजान था, मंजिल क्या है ये भी कोई जानता नही था, सिर्फ चलते जाना है इतना ही पता था। और फिर वो हुआ जिसकी कोई कल्पना भी नही कर सकता था, मामा की कॉपी और पेन लेकर मंजिरी ने धीरे-धीरे लिखना भी सीख लिया था , लाइब्रेरी से जो किताबें मामा अपनी पढाई के लिये लाते वो मंजिरी पढने लगती, विषय कोई भी हो उसे तो बस पढना था, घर पर रखे धार्मिक ग्रंथ हो या कोई उपन्यास, या व्याकरण की पुस्तक, वो कुछ भी अधूरा नही छोडती।

इतिहास और विज्ञान यहां तक ही " भगवतगीता" जैसी अत्यंत कठिन संस्कृत पुस्तक का अध्ययन वो मात्र 16 वर्ष की उम्र में कर चुकी थी, कौन यकीन करेगा?? एक शारिरिक रूप से अक्षम लडकी जिसको स्कूल कैसा होता है ये भी नही पता..... जो अपने घर के क्या बिस्तर से एक कदम उठ नही सकती थी वो आज संस्कृत , मराठी और हिंदी जैसी भाषाओं की जानकार बन चुकी थी, अच्छे से अच्छे बुद्धिमान व्यक्ति के लिये जो इतनी जल्दी संभव नही वो मंजिरी ने करके दिखाया था, इतने पर भी वो रूकी नही, अब वो लेखन क्षेत्र में आना चाहती थी, दिन भर बिस्तर पर पडे रहने के बाद उनका मन विचारों से भर जाता, अपने आस-पास के लोगों का व्यवहार, शारिरिक अक्षमता और ऐसे लोगों की तरफ समाज का एक नज़रिया ,ये सब अनुभव उन्हे लेखन करने के लिये प्रेरित कर रहे थे, पर वो किसी से कुछ कहना नही चाहती थी और इसी कारण वो जो भी लिखती,केवल अपने तक ही सीमित रखती किसी से बताती नही थी, अब वो अपने घर अपने माता-पिता के साथ रहने लगी थी और उनके दो छोटे भाई और उनके बचपन का दोस्त किताबें लाने में उनकी सहायता करने लगे। व.पु.काळे जैसे महान रचनाकारों की कविताओं ने मंजिरी को बहुत प्रभावित किया और अब वो कविताएं लिखने लगी, अपने आस-पास जो भी देखती हर खट्टा-मीठा अनुभव काव्य रूप में व्यक्त करने लगी,पर इतना सब होने के बाद भी कहीं किसी कोने में उन्हे एक खालीपन सताता, एक कमी सी महसूस होती, ऐसा कोई जिनसे वो अपनी भावनाएं बता सके उनके जीवन मे नही था , कोई खास जो उनका हाथ पकडकर उनके मन तक पहुंच सके, पर ये सब एक सपना सा ही था, क्यूंकि हकीकत बहुत बुरी और कडवी थी , वो अब अपने आप से ही प्रेम करती अपनी प्रेम भावनाएं अपने शब्दो मे व्यक्त करती, दिन बीतते रहे और अब वो 19 वर्ष की हो चली थी।

माता-पिता अब चिंतित थे दवाईयों का शरीर पर असर नही हो रहा था अंततः आखरी उपाय शल्य चिकित्सा ही बचा था, अब मंजिरी का जीवन परिवर्तन होने वाला था,सबको लग रहा था कि ऑपरेशन के बाद मंजिरी के शरीर में क्रियाएं शुरू हो जाएंगी, बहुत बडा ऑपरेशन हुआ पर जो सोचा था सब उसके विपरीत हुआ, घर आने के बाद मंजिरी का शरीर पत्थर बन गया और सारे अंगो ने काम करना बंद किया, अभी तक जमीन पर सरक कर चल पाने वाली मंजिरी अब बिस्तर से उठने में भी असमर्थ हो गयी, और पूरी तरह बिस्तर के अधीन हो चुकी थी, उसी समय उनके परिवार पर एक और वज्राघात हुआ, उनका छोटा भाई "लिवर के कैंसर" के कारण चल बसा, उसी सदमें मे मंजिरी की मां को ह्रदय रोग हो गया, वो भी चलने-फिरने मे असमर्थ हो गयी, परिवार पर लाखों रूपये का कर्ज हो गया और पिता व भाई मिलकर घर व काम दोनो करने लगे, बडी विकट घडी थी, सब दुखी थे, परेशान थे, कहीं से कुछ अच्छा होते नही दिख रहा था, ऐसा लग रहा था मंजिरी का जन्म ही कठिनाइयों से सामना करने के लिये हुआ है, उनकी जगह और कोई होता तो शायद उदास-हताश होकर अपना जीवन ही समाप्त कर लिया होता, पर कहते है ना कि उपरवाला जब एक कमी देता है तो उसके बदले सौ खूबियां भी देकर भेजता है, मंजिरी की इच्छाशक्ती और जीवन जीने का दृढसंकल्प इस बात का प्रमाण था, वो लडना जानती हारना नही, एक बार फिर इस स्थिती से निपटने के लिये उन्होने खुद को खडा करने का निश्चिय किया, पूरी ताकत और मेहनत से लगातार प्रयत्न करती रही और करीब 2 साल बाद अपने इस संकल्प मे कामयाब हुई, मां की तबियत संभालने अब मंजिरी उठकर काम करने लगी, जैसा बना जो बना करती रही!!!

बैठ नही पाती तो दीवाल का सहारा ले लेती, चल नही पाती तो जमीन पर सरक-सरक कर यहां से वहां जाती, पर निर्भर नही रहीं किसी पर , अब सब कुछ बदल रहा था, घर में धीरे-धीरे सब ठीक हो रहा था, जब दिन भर के कामों से मंजिरी थककर चूर हो जाती तो रात को बिस्तर पर पडे-पडे कविताएं लिखती, अपना संघर्ष, घर का वातावरण, लोगों का दृष्टिकोण हर प्रकार का अनुभव अपने शब्दों मे लिख देती!! समय बीत रहा था अब मंजिरी की रचनाओं मे स्थिरता , आत्मनिर्भरता और ठहराव आ चुका था, और ऐसे ही समय मंजिरी के जीवन में एक नये व्यक्ति ने कदम रखा.....


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एक दिन की बात है मंजिरी अखबार पढ रही थी, अचानक उसकी नज़र एक कविता पर पडी जो उसे बहुत पसंद आयी , कवि थे "बंसी कोठेवार" अब मंजिरी उनकी कविताएं पढने लगी और मन ही मन उनसे प्रभावित होने लगी, कुछ दिनो बाद एक पत्रिका में उनका नंबर मिला जिस पर सहज ही कुछ अपनी रचनाएं उसने भेज दी, उन रचनाओं को पढकर बंसी बहुत खुश हुए और उन्होने मंजिरी की कविताएं अपने अखबार और पत्रिका में छापने का निर्णय किया, इस तरह बंसी और मंजिरी अब दोस्त बन चुके थे, वो अपनी रचनाएं कभी मैसेज में कभी पत्रों मे बंसी को भेज देती और बंसी जो चंद्रपुर के निवासी थे साथ ही देशोन्नती समाचार-पत्र के संपादक और उत्तम कवी व चित्रकार भी थे , मंजिरी की कविताएं हर माध्यम से प्रकाशित करवाते, वो दोनो अब तक मिले नही थे ना ही एक दूसरे को देखा था केवल फोन पर की हुई बातचीत और कविताओं से ही एक-दूसरे को समझ रहे थे। मंजिरी अब प्रसिद्धी पा रही थी, उनकी कविताएं पसंद की जा रही थी और साथ ही बंसी के मन में उनके लिये प्रेम भी पनप रहा था, कुछ समय बाद बंसी ने मंजिरी के घर जाकर उनसे मिलने की ठानी , वो दिन मंजिरी का जन्म दिन था, पहली बार दोनों मिले पर मंजिरी की अवस्था देखकर बंशी जरा भी विचलित नही हुए,ना ही उनका प्रेम कम हुआ, बल्कि उस एक मुलाकात के बाद उन दोनो की दोस्ती और भी गहरी हो गयी!!! मुलाकातों का सिलसिला चल पडा, अब बंसी अक्सर मंजिरी के घर आने लगे , दोनों के ही मन में प्रेम अंकुरित हो रहा था पर मंजिरी चुप थी, अपनी शारिरिक अवस्था के साथ वो कोई सपना नही देखना नही चाहती, वो अपने लेखन पर ध्यान केंद्रित कर रही थी।

बंसी की मदद से अब वो बाहर जाकर कार्यक्रम करने लगी, उसे आमंत्रण आने लगे और वो अब सही मायने में एक कवियत्री बन गई। फिर वो दिन आया जब बंसी ने मंजिरी के पिता के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया , सब आश्चर्य में पड गये, उन्हे विश्वास नही था और डर भी था एक दिव्यांग लडकी के लिये बिना किसी वजह कोई ऐसा क्यूं करेगा, हम आए दिन ऐसी घटनाएं देखते है जहां गलत काम करने वाले लोग शारीरिक अक्षम व्यक्ति का फायदा उठाते है, मंजिरी के माता-पिता भी साशंकित थे, आखिर उन्होने ना कर दी , वो नही चाहते थे कि उनकी बेटी को किसी मुसीबत का सामना करना पडे।


पर बंसी कहां हार मानने वाले थे वे बोले आप जितना वक्त लेना चाहो ले लो पर मैं जब भी शादी करूंगा मंजिरी से ही करूंगा, उन्होने मंजिरी से बात करना जारी रखा, उनके कार्यक्रम होते रहे , हर आने वाला दिन मंजिरी को ऊंचाइयों पर ले जा रहा था, और बंसी चुपचाप अपने प्रेम को आगे बढता देख कर खुश थे, अब मंजिरी को भी एहसास हो गया था कि बंसी के बिना वो जीवन नही जी पाएंगी, वक्त बीत रहा था और दोनो प्रेमी एक-दूसरे का साथ पाने के लिये इंतजार कर रहे थे। और करीब 6 साल की तपस्या के बाद मंजिरी के पिता ने शादी के लिये हामी भरी , बंसी और मंजिरी के त्याग ने उन्हे यकीन दिला दिया था कि वो एक दूसरे के लिये ही बने है, वो देख पा रहे थे कि बंसी का साथ मिलने के बाद मंजिरी आत्मविश्वास से भर चुकी थी और अपना जीवन प्रसन्नता से जी रही थी, इस तरह बंसी और मंजिरी का ये अदभुत् प्रेम जीत गया , वे विवाह बंधन में बंध गये।

बंसी जैसे प्रेम करने वाले साथी को पाकर मंजिरी का जीवन पूर्ण हो गया था, अब उसने पीछे मुडकर देखना छोड दिया, मंजिरी को उनकी रचनाओं और कविताओं के लिये

भगवान ठग स्मृती पुरस्कार

मीरा जामकर साहित्य रत्न पुरस्कार

फिनिक्स साहित्य पुरस्कार

वर्धा फोरम द्वारा साहित्य गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया गया , साथ ही विविध न्यूज चैनलो व अखबारों मे उनके जीवन व सफर के बारे में बताया गया, आकाशवाणी में उनके कार्यक्रम होने लगे , और ये सब निरंतर जारी है....

बंशी के प्रेम ने मंजिरी को ना केवल इस समाज में स्थान दिलाया बल्कि उन सभी को एक सबक दिया है जो दिव्यांगजनो को कमतर आंकते है , प्रेम ये हर जाति, बंधन और शारिरिक क्षमता से परे होता है, ये भी उदाहरण समाज के सामने प्रस्तुत किया...

कोई भी कमी कोई भी व्याधि आपका मार्ग रोक नही सकती यदि आपने आगे बढने की ठान ली हो तो...

प्रेम शरीर से नही उस इंसान के गुणों से किया जाता है इसकी जीती-जागती मिसाल है "बंशी और मंजिरी"


- प्रगती गरे दाभोळकर 
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