चकाकौंध और अकेलापन..

    15-Jun-2020
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डॉ. मयंक दातार

सुशांत सिंह राजपूत ने जो कदम उठाया, उसके पीछे की वजहों का पोस्टमार्टम मीडिया कर ही रहा है और कुछ दिनों में पुलिस की ओर से भी इसका खुलासा हो जाएगा. वजह जो भी रही हो, लेकिन इस दुखद घटना ने एक बार फ़िर दो बड़ी समस्याओं को उजागर किया है. एक चकाचौंध की दुनिया का अनछुआ पहलू और दूसरा शहरों के लोगों में ख़ासकर युवाओं में बढ़ता जा रहा अकेलापन.


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फिल्मी दुनिया ऊपर से जितनी लुभावनी लगती है, उतनी है नहीं. मगर ये बात सिर्फ़ वही लोग जान पाते हैं जो या तो सफ़लता के शिखर पर हों या फ़िर 'स्ट्रगलिंग आर्टिस्ट' हों. हॉलीवुड की मशहूर अदाकारा मर्लिन मुनरो के बारे में पढ़ा था कि उनके आखिरी दिनों में वे एकदम अकेली थीं, उनका कोई दोस्त नहीं था. लोग उन्हें पार्टियों में सिर्फ़ शो-पीस की तरह बुलाया करते थे. बॉलीवुड में भी गुरूदत्त, परवीन बाबी, मनमोहन देसाई, दिव्या भारती, जियाह खान जैसे कई उदाहरण हैं, जिन्होंने ख़ुदकुशी जैसा कदम उठाया. चकाचौंध भरी फिल्मी दुनिया के लोगों का जीवन भी एक फ़िल्म की ही तरह होता है. पर्दे पर जब तक आपका खेल जारी है, तब तक लोग आप को देखते रहते हैं, तालियाँ और सीटियाँ बजाते हैं. पर खेल ख़त्म होते ही सिनेमाघर ख़ाली हो जाता है. किसी सधी हुई स्क्रिप्ट की तरह, जैसे एक पात्र तय समय पर अपना किरदार निभाकर चला जाता है, वैसे ही असल जिंदगी में भी कलाकारों को तय समय पर अपनी क्षमता और प्राथमिकताओं के बारे में सोचना चाहिए और फिल्मी जगत के परे जो एक और जिंदगी है, उसके बारे में सोचना चाहिए. स्टारडम की ये दुनिया इतनी मोहित कर देने वाली है कि आप उस रोशनी में और कुछ देख ही नहीं पाते हैं. मंज़िल पर पहुँचकर जब आप पीछे मुड़कर देखते हैं, तो पाते हैं कि जिस खुशी की आस में आपने ये सफ़र शुरू किया, वो खुशी अब खो गई है. जिनके साथ आप ये पल साझा करना चाहते थे, वे भी पीछे छूट गये हैं. सुशांत जॉन ग्रीन के अंग्रेजी उपन्यास 'द फॉल्ट इन आवर स्टार्स' पर आधारित फ़िल्म पर काम कर रहे थे. उस कहानी का इस बात से कोई संबंध नहीं है, पर शीर्षक ज़रूर ये बात स्पष्ट कर देता है - 'द फॉल्ट इन आवर स्टार्स'.

इसी तरह, बेहतर मौकों की तलाश में सैंकड़ों युवा, आज अपने घर-परिवार, अपने गाँव-कस्बों को छोड़कर शहरों की ओर रुख़ कर रहें हैं. सफ़लता की चाह में वे कड़ी मेहनत भी करते हैं और कई त्याग भी. पर, सोशल मीडिया पर चिल्ला-चिल्लाकर अपनी 'हिप एन्ड हैपनिंग' लाइफ का जो एक सुंदर चित्र रचते हैं, वास्तव में, उससे एकदम अलग एक नीरस और एकाकीपूर्ण जीवन जी रहे होते हैं. सब एक ऐसी दौड़ में भाग रहें हैं, जो कभी पूरी नहीं होने वाली. किसी के पास एक पल के लिए रुकने का, रुककर सोचने का वक़्त नहीं है. लोगों का आपस में मिलना-जुलना कम होता जा रहा है. फेसबुक पर सैंकड़ों फ्रेंड्स हैं, पर असल में अंगुलियों पर गिनने लायक ही दोस्त बचे हैं. परिवार से यदा-कदा बातचीत करते हैं. पड़ोस में कौन रह रहा है, वो जिंदा है या मर गया, ये जानने का वक़्त भी नहीं है और न ही उसमें कोई दिलचस्पी है. इसे रोकना होगा, हमें रुकना होगा और इसे बदलना भी होगा.

ये जो वक़्त अभी चल रहा है वो ज़ालिम जरूर है जो इसने सैंकडों की रोजीरोटी छीन ली, कितनों को घरों में कैद कर दिया और कितनों को जिम्मेदारी या मजबूरी के नाम पर घर से दूर कर दिया. पर ये कठिन समय, एक अवसर लेकर आया है - रुकने का, रुककर सोचने का, तस्वीरों पर जमी धूल साफ़ करने का. ये समय है सोचने का, उनके बारे में जिनकी बदौलत हम अपने मुकाम तक पहुँचे. ये समय है उन पुराने यार-दोस्तों से जुड़ने का जो अलग-अलग रास्ते पर निकल गए. बात कीजिए उनसे. पुरानी यादें ताज़ा कीजिये. कोई तकलीफ़ है, तो बताइये उन्हें. उनकी कोई तकलीफ़ हो, तो वो आप दूर कीजिये. पड़ोसियों से मिलिए, उन्हें जानने की कोशिश कीजिये. हो सकता है आपको किसी की ज़रूरत महसूस न हो रही हो, पर किसी और के लिए शायद आप सब कुछ हों, उस शख़्स के लिए ही सही ख़ुद का ख़याल रखिए! जिंदगी बहुत खूबसूरत है, इसे सहेजकर रखिए. ख़ामोशी में हमेशा के लिए ख़ामोश हो जाना कभी किसी सवाल का हल नहीं होता, उल्टा ये कदम अपने पीछे अनगिनत सवाल छोड़ जाता है...

जाते-जाते अटल जी की ये पंक्तियाँ सुनकर जाइये और अपना ध्यान रखिए -

कदम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,

कल कछार में, बीच धार में,

घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,

जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को दलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।